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मजदूर-जैनेन्द्र प्रसाद रवि

मजदूर

सुख और सुविधा से जो कोसों रहते दूर हैं।
ग़रीबी की चक्की में पिसते दुनिया में मजदूर हैं।।
अपने नाजुक कंधों पर दुनिया की बोझ उठाते हैं,
दिनभर की मेहनत करने पर दो जून की रोटी जुटाते हैं।
माथे से पसीने की बूंदे, बनकर टपकता नूर है।।
दूसरों के ये महल बनाते ख़ुद जीतें हैं ख्वावों में,
जन्म से लेकर पूरा जीवन गुज़र जाता है अभावों में।
हसरत इनके दफ़न हो जाते, सपने होते चकनाचूर हैं।।
इनकी मजबूरी को शाय़द हम समझ नहीं पाते हैं,
थोड़ी सी प्रसंशा पाकर हंसकर ख़ून बहाते हैं।
थोड़ी देर वे सुस्ताते हैं, जब हो जाते थक कर चूर हैं।।
ग़रीबी और अशिक्षा के कारण अपना अधिकार नहीं पाते हैं,
कठिन परिश्रम करने पर भी उचित मज़दूरी न पाते हैं,
खून पसीना बहाकर भी गरीब रहने को मजबूर हैं।।
इनके बल पर दुनिया चलती नित्य भरते हैं अपना खजाना,
कार्यसिद्धि हो जाने पर बन जाते हैं लोग बेगाना।
मतलब निकल जाने पर बदल जाना, दुनिया की दस्तूर है।।
ग़रीबी की चक्की में पिसते दुनिया में मजदूर हैं।।

जैनेन्द्र प्रसाद रवि
बाढ़, पटना

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