मन अगर वैधव्यमय हो
तन सजाकर क्या करूंगी?
चाह कब मैंने किया था
स्वर्ण से यह तन सजाना
और तो इच्छा नहीं थी
आसमां तक उड़के जाना
कामना इतनी सी मेरी
साथ मिलकर पग बढ़ाना
पांव दे दीं बेड़ियां जब
पग बढ़ाकर क्या करूंगी??
भक्ति अपनी,शक्ति अपनी
प्रेम तक तुम पर समर्पित
मन,वचन हर धर्म से भी
हो चुकी थी तुझपे अर्पित
हाय!निष्ठुर बन सखे तुम!
कर गए जीवन ही श्रापित
वेदना भर कर हृदय में
फाग गाकर क्या करूंगी??
त्याग गृह को जाओगे तुम
ये कभी अनुमान न था
बाद तेरे तन्हा पीड़ा
सह सकूंगी भान न था
नव वधू,नव यौवना के
प्रीत का सम्मान न था
अश्रुजल हैं जब स्वरा तो
मुस्कुराकर क्या करूंगी??
डॉ स्वराक्षी स्वरा
खगड़िया बिहार
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