विधाता छंद। विधान-1222*4
(लिखी हूँ प्रेम पाती प्रिय)
(1)
गगन हो या धरा पर हो,
तुम्हें सत्कार जन-जन में।
तुम्हीं को देख जीती हूँ,
प्रणय का रीत कण-कण में।
बजे मेरे पदाभूषण,
सुरीला गीत छन-छन में।
बजा मणिबंध पर कंगन,
हुए मदहोश खन-खन में।
(2)
लिखी हूँ प्रेम पाती प्रिय,
उसे रख दूँ पिटारे में।
तुम्हें आवाज देती हूँ,
मिलो मुझ से किनारे में।
सुनो आहट कभी मेरी,
निकट मेरे चले आना।
न डर हो आज दुनिया से,
मधुर पल साथ में पाना।
(3)
सखी बोली सजन मेरे,
घटा छाई अभी काली।
गिरी बूँदें करे टिपटिप,
बजाएँ आज मिल ताली।
भटक जाते कभी राहें,
रसिक को खोज कर लाती।
मिलन की रात उर धड़के,
उन्हीं का प्यार अब पाती।
एस.के.पूनम
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