फिर भी हैं वह ढाल
न वह हिमगिरि न वह छत्रपति
फिर भी हैं वह ढाल,
फिर भी हैं वह ढाल।
दीन के आशियानों में हर्षित कर,
ढक कर ममता की वह चादर।
दर्द को कोसों दूर भगाकर,
नैनों की वह नीर चुरा कर।
झेल रहें हैं काल,
फिर भी हैं वह ढाल,
फिर भी हैं वह ढाल।
तिनकों पे है जीना सीखा,
न तो कभी वह मूरकर देखा।
अनजाना थे राह निराले,
हर मौसम हर पल मतवाले।
कभी न कोसा अपने मन को।
कभी न देखा रूप विकराल,
फिर भी हैं वह ढाल,
फिर भी हैं वह ढाल।
संगीत में बसते प्राण हैं जिनके,
रुप-सलौने चित्रकारी उनके।
धीरज, धैर्य, धर्म न छोड़े,
बिगडौं से वह नाता जोड़े।
हैं वह ऐसे कृपाल;
फिर भी हैं वह ढाल,
फिर भी हैं वह ढाल।
विधाता भी है क्या गढ़ती मूर्ती,
जिनमें होती उनकी कीर्ति।
सत्य, वैभव की नींव डालकर,
कर दिखा गये वह कमाल।
मानवता की डोर थामकर,
स्थिर हैं वह लाल।
फिर भी हैं वह ढाल,
फिर भी हैं वह ढाल।
भोला प्रसाद शर्मा
प्राo विo गेहुमा (पूर्व)
डगरूआ, पूर्णिया (बिहार)
शिक्षक दिवस पर