मनहरण घनाक्षरी छंद
सैकड़ो हैं धर्म-पंथ,
जिसका नहीं है अंत,
दुनिया में गरीबों की, होती नहीं जात है।
दिन भर कमाते हैं,
जो भी मिले खा लेते हैं,
जहांँ होती शाम वहीं, कट जाती रात है।
ढोते हैं अकेले बोझ,
खोजती हैं आंखें रोज,
नहीं कोई मसीहा से, होती मुलाकात है।
सपने दिखा के लोग-
भावना से खेलते हैं,
सामाजिक समानता, कहने की बात है।
जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
0 Likes

