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तेरा न कि मेरा-भोला प्रसाद शर्मा

Bhola

तेरा न कि मेरा

यह सूरज भी तेरा है
न कि मेरा है
अगर होता यह मेरा तो
दुनियाँ होती रैन बसेरा
जब-जब जी मेरा है चाहता
तब-तब मैं साँझ ढलाता
ऊफ़ की आह समझ कर मैं
कभी छाँव कभी कमल बरसाता।

यह चाँद भी तेरा है
न कि मेरा है
अगर होता यह मेरा
हरपल खुशियाँ मुस्काता
न होता इन्तजार ईंद में
करवा-चौथ भी कुछ पहले हो जाता
न होता बेकरार हंस-चकेवा
हर दिन पूणम बन अमृत छलकाता।

यह हवा भी तेरा है
न कि मेरा है
अगर होता यह मेरा
कभी धूल न मैं उड़ाता
उस अम्मा की गोद बैठ मैं
उनकी साँसों में घुल जाता
उस मासूम के नवजीवन में
प्राणवायु बन खुद मिट जाता।

यह पथ भी तेरा है
न कि मेरा है
अगर होता यह मेरा
मैं दरिद्रता नहीं उपजाता
हो दरिद्र कुमार्ग पे अटके
आजीवन भरम-पोषण में भटके
राम नाम भी नहीं सुहाता
जीते जी वह जग में मर जाता।

यह रंग-रूप-यौवन भी तेरा है
न कि मेरा है
अगर होता यह मेरा तो
मैं खुद पर इठलाता
करता न योग न सैर सुबह-शाम
न चलती दुनियाँ न
कुछ होता और भी काम
होता न शृंगार जगत में
होता शून्य भी चारो धाम
बस बंद गुफ़ा-कंदराओं में
कहीं पे जपता तेरा नाम।

भोला प्रसाद शर्मा
डगरूआ, पूर्णिया (बिहार)

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