टूटती सी कविता
रंग चटखने लगे हैं इसके
परेशान है कविता
कोलाहल से
किसी कोविड से
किसी यास से
किसी ब्लैक रेड फंगस के
संताप से।
बिखरती चेतना से
सहमती कविता
खो गया है इसका लालित्य कहीं
मलिन हो गई है चंचलता
अब झगड़ती भी है मुझसे
मेरी कविता।
क्यों कुछ लिखते हो कवि तुम
क्या है जो
दिखता है तुम्हें अब भी शेष
कौन सी आशा
कौन सा अवशेष।
नहीं, कवि ते!
यह तो सही नहीं है सोचना
बताओ तुम्हीं
क्या सूरज का डूबना ही
अंतिम सत्य है
क्या झूठ है यह कि
सूरज का खिलना पुनः
सुनिश्चित है!
क्या कलियाँ अब नहीं खिलती
क्या बच्चों ने हँसना छोड़ दिया है
क्या हमारी करुणा
किसी के आंसुओं से नहीं पिघलती
क्या हमारे अंतरतम से प्रार्थना के स्वर
अनायास ही निःसृत नहीं होते
अब भी!
यह क्या है कविता
जीवन भी है, जीवन का पर्याप्त
सामर्थ्य भी…
आओ, इस तरह टूटो न तुम
आओ, हम मिलकर पार करेंगे
तिमिर का यह घोर तम
आओ, हम मिलकर
फिर रचेंगे
प्रभात का शाश्वत गान
आओ, हम मिलकर करेंगे
सम्मिलित उदघोषणा
कि हम विजयी हुए हैं
मनुजता विजयी हुई है…
गिरिधर कुमार