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उद्बोध-गिरिधर कुमार

Giridhar
स्वप्निल सा कुछ,
टूटता, सँवरता…
जिद से,
कभी अपने ही मूल्यों से,
अतृप्त, बेपरवाह, अकिंचन, अद्भुत…
मनोरोग कोई या
जिजीविषा का कोई रूप…
कोई कविता या
अपना ही कुछ लेखा जोखा…
क्या करोगे जानकर,
अंधेरी रात को पहचानकर!!!
यह तो बात है ही,
उसने कभी न हारने की
शपथ ले रखी है,
उसे समझाना मुश्किल है,
उसे थकाना मुश्किल है,
एक असम्भव साधना का साधक?
और वह निर्लेप है…
एक अशब्द संगीत के शोर जैसा,
क्यों बजते रहते हो कवि?
यह तो सरासर
अनुशासनहीनता है,
क्यों ऐसे मचलते रहते हो कवि?
भला यह भी कोई सलीका है…
कुछ तो बोलो,
यह चुप्पी है कैसी!
यह शोर है कैसा…
जैसे स्वप्निल यथार्थ का कोई टुकड़ा,
लुढ़क रहा हो,
बीचो-बीच सड़क के…
यह क्या कुछ है कवि…
यह मनोरोग…???
कोई मनोभाव…
अथवा कोई उद्बोध…!!!!

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