वो दिन
कितना
बदल गया सब कुछ
नियति की इस क्रीडा में
अपने ही बच्चों से दूर
शिक्षक की
इस पीड़ा में…
गुजरे जमाने की
बात हो जैसे
वह मंजर
याद आते हैं
बच्चे पढ़ते हैं स्वच्छंद
शिक्षक तल्लीन
पढ़ाते हैं
यह अधूरा सा कुछ
जीवन
सबकुछ एकाकी
लगता है
कितना भी कुछ
जतन कर लो
शिक्षक का दिल
नहीं भरता है
नियति का
बेरहम खेल यह
कोरोना कब तक जायेगा
क्या कभी
पतझड़ प्रांगण में
फिर से बसंत आयेगा!
निराश नहीं हूँ
पूछो अब भी
संकल्प और भी
दृढ़ होता है
कैसी भी विपदा आये सही
भला वीर पराजित होता है!
लड़ना कुछ दिन
और सही
यह वक्त गुजर भी
जाना है
यही है विश्वास
निपट कर
आगे बढ़ते जाना है।
गिरिधर कुमार
संकुल समन्वयक, संकुल म. वि. बैरिया, अमदाबाद, कटिहार
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