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शरद्ऋतु- जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’

Jainendra

सूरज दादा शांत पड़े हैं जाड़े ऋतु से डरकर,
सीना तान खड़ा हुआ शरद्ऋतु जब तनकर।
चाय-कॉफी सबका मन भाए, अंडा मांस मछली,
एसी,कूलर,फ्रीज की हालत अब हुई है पतली।
स्वेटर, मफलर, कंबल का आज़ बढ़ गया है भाव,
रूम हीटर, गीज़र भी देता अपने मूंछों पर ताव।
आग, धूप सबको मन भाती, अंगीठी बहुत ही प्यारी है,
ठंढ़ से थर-थर कांप रही, झोपड़ी में रामदुलारी है।
सड़कें हैं सुनसान पड़ी, उदास हैं सारी गलियाँ,
सर्दी की थपेड़ों से मुरझाई बागों की कलियाँ।
रात-दिन का पहरा है बुजुर्गो की हर साँसों पर,
छोटी-छोटी बूंदें चमकें मोती बनकर घासों पर।
अमीरों का वरदान बना, गरीबों के लिए यह शाप,
याद आएगी नानी अपनी, यदि करेंगे मनमानी आप।

जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’
म.वि. बख्तियारपुर,पटना

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