सूरज के प्रचण्ड ताप से , अब नहीं कुम्हलाएँ हम ।
आओ करें श्रृंगार धरा का, हरियाली विकसाएँ हम ॥
पंचभूतों की प्रकृति में, नित्य विष हम घोल रहे,
अपने हाथों स्वयं की मृत्यु, के दरवाजे खोल रहे,
क्षणिक सुखों के उपभोग को, प्रदूषण नहीं बढ़ाएँ हम ।
आओ करें श्रृंगार धरा का, हरियाली विकसाएँ हम ॥
स्वच्छ जल हो, स्वच्छ हो वायु, इस पर तनिक विचार करें,
प्रकृति का दोहन करके, स्वयं को नहीं बीमार करें,
सृष्टि की इस अमूल्य निधि को,यूँ ही नहीं गंवाएँ हम ।
आओ करें श्रृंगार धरा का, हरियाली विकसाएँ हम ॥
वृक्षविहीन हो रही धरा जब हरी–भरी हो जाएगी,
झुलस रही, बिलख रही, प्रकृति मंद−मंद मुसकाएगी,
वृक्षारोपण सिंचन करके, तरु को मित्र बनाएँ हम ।
आओ करें श्रृंगार धरा का, हरियाली विकसाएँ हम ॥
स्वयं पर लगे मीठे, फल को, तरुवर कभी नहीं खाते,
परहित की भावना से, परोपकार की रीत निभाते,
देववृक्ष के उपकारों को, नित- नित शीश झुकाएँ हम ।
आओ करें श्रृंगार धरा का, हरियाली विकसाएँ हम ॥
रत्ना प्रिया
शिक्षिका (11 – 12)
उच्च माध्यमिक विद्यालय माधोपुर
चंडी ,नालंदा