रात्रि-पहर जल्दी से सो जाता था,
बोझिल मन से प्रातः उठ जाता था,
सहम जाता बस्ते का बोझ उठाने से,
कंधों की वेदना से तड़प जाता था।
जाग गया है सौभाग्य अब बच्चों का,
होगा हर शनिवार बिना बस्तों का,
अब कंधों का दर्द भी कम जाएगा,
चेहरा पुष्पों की तरह खिल जाएगा।
अब स्कूल जाने से क्यों कतराना है,
गलि-कूचों में व्यर्थ क्यों मंडराना है,
अब नित्य जाना है सहर्ष पाठशाला,
क्योंकि बस्ते का बोझ हल्का हो गया है।
बाल-मन पांच दिन किताबों में उलझेगा,
अब हर शनिवार को मैदानों में चहकेगा,
अब खुल गए हैं सर्वांगीण विकास की राहें,
क्योंकि हो गया है हल्का बोझ थैलों का।
नहीं रहा अब शनिवार केवल चित्रांकन का, हैअब सप्ताह भर के लिए पसीने बहाने का,
प्रशस्त है पथ अब बच्चों के पूर्ण विकास का,
होगा अब बच्चों के होठों पर मृदुल मुस्कान,
क्योंकि अब हो गया है हल्का बोझ थैला का।
एस.के.पूनम(स.शि)फुलवारी शरीफ, पटना।