हे वसुधा तूझे शत-शत प्रणाम
भू, भूमि, क्षिति, धरणी, धरित्रि
ये सब धरा के पर्यायवाची नाम,
वसुंधरा से हमें मिलती है जीवन
वेदों ने माना इसे माँ के समान
हे वसुधा! तूझे शत्-शत् प्रणाम।
पृथ्वी ब्रह्मांड में एक मात्र ग्रह है
जहाँ होती दिन-रात, सुबह-शाम,
इस अवनि को सब मिलकर बचाएं
प्राणी न भुगते कभी गंभीर परिणाम
हे वसुधा! तूझे शत्-शत् प्रणाम।
धरती समस्त प्राणियों का क्रीड़ांगन
ॠषि-मुनियों का परम पावन धाम,
शस्य श्यामला रत्नगर्भा हरी-भरी है
जहाँ जन्म लिए भगवान सीताराम
हे वसुधा! तूझे शत्-शत् प्रणाम।
जल, वायु, पेड़, पौधे और जीवन
ये सब प्रकृति का अमूल्य वरदान,
पर्यावरण संरक्षण से संतुलित होगी
अंतरिक्ष और वैभवशाली भू महान।
हे वसुधा! तूझे शत्-शत् प्रणाम।
नदियाँ, पोखर, झरने और समंदर
मन मोहित करती दृश्य अभिराम,
प्रदूषण से फैल रही है बीमारियाँ
मानव कर रहा खुद को बदनाम
हे वसुधा! तूझे शत्-शत् प्रणाम।
वृक्षारोपण कर मृदा अपरदन को रोके
आओ करे इंसानियत का कुछ काम,
कह रहे कवि ‘नरेश कुमार निराला’
तब मिलेगी पृथ्वी को मान-सम्मान
हे वसुधा! तूझे शत्-शत् प्रणाम।
स्वरचित-
नरेश कुमार “निराला”
शिक्षक, सुपौल (बिहार)