हाँ !मैं कल्पना हूँ
उस परमपिता परमेश्वर की,
जिसने मुझे यह स्वरूप दिया,
साथ ही दिया एक कोमल हृदय।
सहनशक्ति दी धरती सी,
और पवन सा वेग दिया।
एक मूक वाणी देकर,
इस कठोर जगत में भेज दिया।
पर कहाँ है मेरा वजूद हे ईश्वर!
क्यों उसे बनाना भूल गये?
क्या है मेरे अधिकार प्रभु,
क्यों जग को बताना भूल गये?
क्या अधिकार नही मुझे हँसने का
क्यों पग-पग पे अपमान मिला?
जो समझा ना मेरे अस्तित्व को
हर युग में वो इंसान मिला।
रख कर अपनी कोख में मैंने
इन पुरुषों को जन्म दिया।
फिर इन्ही पुरुषों के हाथों
अपना दमन स्वीकार किया।
क्यों अग्नि परीक्षा हर युग में,
मुझको ही देनी पड़ती है?
क्यों औरों की चोट की पीड़ा,
मुझको ही सहनी पड़ती है?
इतना सब कुछ सह कर भी मैंने
तेरी सृष्टि को सवांर दिया।
धन्यवाद कर तेरा मैंने
अपना नारीत्व स्वीकार किया।
बिंदु अग्रवाल शिक्षिका
मध्य विद्यालय गलगलिया
गलगलिया, किशनगंज
बिहार
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