ससुराल की परेशानियों से जब
थक जाती है बेटियां,
तब कुछ दिन मन बहलाने के लिए
मायके आती है बेटियां।
आते ही वहीं दहलीज़ पर
चिंता की लिबास उतार देती है,
ताकि उनकी मुखाकृति को कोई
पढ़ न सके,छुपा लेती है अपने
मनोभाव को हृदय के किसी कोने में,
और पहन लेती है बनावटी मुस्कान का चोला
फिर प्रवेश करती है,घर के अंदर बेटियां।
घर के आंगन के अंदर आकर
अपनी बचपन को ढूंढती है वो,
जहाँ वात्सल्य की शीतलछाया में
रहकर हुई थी बड़ी।
युवावस्था को प्राप्त होते ही
माता-पिता अपनी हैसियत के अनुसार
वर ढूंढकर,कर दिए हाथ पीले।
चैन की सांस लिए पिता उस दिन,
जैसे बड़ी ऋण से उबर गए हो,कन्यादान कर।
पिताधर्म को निभा बहुत खुश थे वो,
लेकिन सिसक रही थी उनकी हृदयात्मा।
एक अदद स्नेह को जब,छटपटाती है बेटियां,
तब वात्सल्य की ममताभरी छाया पाने,
मायके आती है बेटियां।
संजय कुमार (अध्यापक )
इंटरस्तरीय गणपत सिंह उच्च विद्यालय, कहलगाँव
भागलपुर ( बिहार )