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ग्राम्य जीवन-प्रियंका प्रिया

शीर्षक- ग्राम्य जीवन

ग्राम्य जीवन की पृष्ठभूमि को
भूल गए सभी आज,
गोबर, उपले, माटी अंगना से करते थे आगाज़।।

निश्छल,निर्मल, अपनत्व भाव से करते थे सत्कार,
जीव-जंतु सभी की सेवा करते थे पुचकार।।

झूम झूम खेतों में फसलों की हरियाली थी,
लहराई पवन से वो अद्भुत छटा निराली थी।।

  1. मद्धम मधुर खेतों पर भ्रमर अनुगूंजित शहनाई थी,
    लहलहाते खेतों में कृषकों की मेहनत रंग
    लाई थी।।

कृषक खेतों में मेहनत करते स्त्रियां ओखल में धान कुटाई,
धान उषण के मिल के मेहनत करते थे सब भाई।।

बैलगाड़ी से आना जाना या होता था माल ढुलाई,
पनघट, चौखट पर मिल जाती सकुचाती “पर लुगाई”।।

घूंघट सिलवट चुनरी झांझर
सौम्य होता श्रृंगार था,
संयुक्त परिवार से भरा हुआ घर बार था।।

पीपल की छांव में बरगद पे हम झूले थे,
गिल्ली-डंडा खेल तमाशा नाटक ना हम भूले थे।।

हर कोई सीधा हर कोई सच्चा,
कैसी वो तस्वीर थी,
कलयुग के चक्र में फंस गए स्वार्थ भरी तकदीर थी।।

प्रीति, रीति स्नेह भरा वो गांव ही समृद्धशाली था,
प्राचीन सभ्यता ही वो मेरा गौरवशाली था।।

प्रियंका प्रिया
स्नातकोत्तर शिक्षिका (अर्थशास्त्र)
श्री महंत हरिहरदास उच्च विद्यालय,पूनाडीह
पटना,बिहार

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