शब्दों के बंधन -कंचन प्रभा

Kanchan

समन्दर से दूर जा के कभी शंख नही मिलते

बंधन से एहसासों को कभी पंख नही मिलते

अपने एहसासों मे खुल कर नहाने के लिये

पँछी रुपी तन को हवाओं मे उड़ाने के लिये

अक्षर अक्षर मोती सा एक सूत्र बना कर देखिए

चंद मीठे सपनों के कोई ख्वाब सजा कर देखिए

छू कर कभी बारिश की बूंदें तन को भिंगाना सिखिए

भींनी भींनी उन खुशबू को मन पर बहाना सिखिए

कविता कोई बात नही, कविता बस एहसास है

किसी कवि के अन्तरमन की सिमटी हुई तलाश है

कभी कोई छण चुभता है तो निकलती है कोई आह सी

कामयाबी की कसौटी जब बोलती है वाह वाह सी

बनने लगते शब्दों के फिर सुन्दर कोई माला सी

वीरता में भी निकले कवि के मन से ज्वाला सी

सुर्य की ताप से ज्यादा चाँद की शीतलता से बढ़ कर

कवि सजाये अपनी कविता सपनों के घोड़े पर चढ़ कर

कभी फूलों से कभी काँटों से कभी सजता जिन्दगी उसमें

कभी द्वेष कभी घृणा को कभी खुदा की बन्दगी उसमें

कौन है ऐसा जो कर पाये धरती पर ये बतलायें

कितने कितने रूप से सजते कवियों के ये कवितायें।

कंचन प्रभा
रा0मध्य विद्यालय गौसाघाट, दरभंगा

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