अतुल्य रिश्ता-विजय सिंह नीलकण्ठ

अतुल्य रिश्ता

माता होती है अतुल्य 
जिसे जानती दुनिया सारी 
अतुल्य रिश्ता है इनसे 
जो कहलाती माता प्यारी।
सबसे पहले अनुभव करती 
फिर शुरू करती रखवाली 
स्व रक्त से सिंचित करती 
जैसे पौधों की वनमाली।
स्व संतान को जन्म देकर 
अपने आप को धन्य मानती 
अद्भुत खुशियां चेहरों पर दिखती 
शुरू होती ममता की क्रांति।
हर पल हर क्षण नजर है रखती 
ये अपनी संतानों पर 
आंखों से ओझल होते ही 
ढूंढे घर दरवाजों पर।
मिलने पर शिकायत करती 
क्यों छुपे थे मेरे बच्चे
फिर ऐसी गलती न करना 
खाना खिलाऊंगी अच्छे-अच्छे। 
जब स्व बच्चे बाहर जाते 
आस लगाए बैठी रहती 
जब तक बच्चे न वापस आते 
तब तक घर में चिंतित रहती।
आते ही प्रसन्न होकर 
घर के काज को पूरा करती 
सब बच्चों को खिला पिलाकर 
स्वयं भी खाकर सोने जाती। 
बच्चों पर विपदा आने पर 
ईश्वर से है विनती करती 
जल्दी ठीक करो बच्चों को 
ईश्वर से यह कहती रहती। 
लिखते लिखते थक जाऊंगा 
न पूरा लिख पाऊं महिमा 
तुमसे ही अस्तित्व है मेरा 
पद प्रतिष्ठा और गरिमा। 
धन्य मानता हूॅं मैं स्वयं को 
सिर पर है माता की छाया 
हर पल आशीष है देती 
जिसने है मुझको जाया।
विजय सिंह नीलकण्ठ
सदस्य टीओबी टीम
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