बाबुल की गुड़िया
हो सके तो समझो दुनियाँ
एक पिता के “मर्म” को,
रख कर अपने दिल पे पत्थर
निभाता पिता के धर्म को।
“बूत” बनकर है निभाता
रस्म “कन्यदान” का,
आसान नहीं होता है करना
जुदा “तन” से प्राण का।
है नहीं अंदाज जग को
एक पिता की “पीड़” की,
जिसने हाथों से उड़ाया
“पंछी” अपने नीड़ की।
सम्भव होता तो दिखाते
“हृदय” को अपने चीड़ कर,
क्या गुजरती है जब
जाती है “गुड़िया” छोड़ कर।
दे नहीं सकता सहारा
जीवन-भर कली को साथ में
सौंप देता है उसे एक
कुशल “माली” के हाथ में।
यह रीत निभायी विदेहराज ने
“दान” कर अपनी “जानकी”
बदले मे उन्होनें पाया
दुर्लभ दर्शन “श्री राम” की।
स्वरचित
अनुपमा श्रीवास्तव
राज्यकृत मनोरमा +2 विद्यालय
जमालाबाद, मुजफ्फरपुर
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