कागज़ की आत्मकथा
मेरा जन्मभूमि चीन कहलाता है,
मुझे माह, तारीख तो याद नहीं है,
पर हाँ! वर्ष 201 ई.पू. अंकित है,
त्साई-लुन मेरे जनक कहलाते हैं।
मैं वृक्षों के सेल्यूलोज के रेशों से बनता हूँ,
पर प्रथम बार कपडों के चिथड़ों से बना हूँ,
धीरे-धीरे अपने वतन से बाहर कदम रखा,
और सिंधु-सभ्यता वालों ने मुझे अपनाया,
मिस्र वालों ने मुझे पेपरिस नाम से नवाजा।
धीरे-धीरे मेरी उपयोगिता को सबने समझा,
फिर संसार ने मुझे बड़े हर्ष से अपनाया,
आधुनिक यंत्रों द्वारा मेरा विस्तार हुआ,
मानव-सभ्यता के विकास का आधार बना।
घर के कोने में पड़ी पुरानी-नई किताबें,
या दफ्तरों के अलमारियों में सहेजे पुस्तकें,
हाथों में डायरी या दीवारों पर टंगी कैलेंडर,
मेरी उपयोगिता और अस्तित्व को दर्शाता।
हमेशा भित्तियों पर ही सुसज्जित नहीं होता,
कभी विछोह की बूंदों से भी भींगता,
कभी प्रणय का संदेशवाहक बन जाता,
अनगिनत प्रेम-कहानियों का हमराज बना।
अनगिनत रंग-रूपों को पाकर हर्षित होता,
उकेरे गए सुन्दर कलाकृतियों में मुस्कुराता,
पर मेरे कारण असंख्य वृक्षों की कुर्बानी देख,
धरा पर असंतुलित होते पर्यावरण का एहसास कर,
व्यथित हो जाता हूँ, यही है मेरी आत्मकथा।
एस. के. पूनम
फुलवारी शरीफ, पटना