पिता का चरित्र
एक रिश्ता है वो प्यार का,
रहकर भी साथ निभा जाते हैं।
होंठो पर दिखा मुस्कान वह हरदम,
दिलों पर बोझ सहन कर जाते हैं।
पता ही नहीं चलता इस तरह,
अपने दुखड़ा को छुपा लेते हैं।
चोट भी लगा हो गहरा,
हँसकर यूँ बता जाते हैं।
शायद! किस मिट्टी का बना है,
शरीर तपन देता है;
यूँ निकल जाते हैं काम पर,
सबकी खुशियाँ व खरीद लाते हैं।
कुछ माँ की भी सुनते,
कुछ बीबी भी कह जाती है।
आराम कहाँ उनके हिस्से में,
आराम सबको दिये जाते हैं।
अपने जीवन शैली में,
अनेकों नाम वे पाते हैं।
कभी बेटा कभी बाप तो,
कभी अपनों के गुलाम बन जाते हैं।
नींद भी नहीं आती है शायद,
चैन भी कहीं खो जाता है।
मना करवा चौथ पत्नी के संग,
वह राखी के लाज बचा जाते हैं।
सपना तो उनका भी होता होगा?
खुद को दबा कर रह जाते हैं।
देख बच्चों की किलकारियाँ,
गम में भी मुस्कुरा जाते हैं।
रुठे तो वह खुद रहते हैं,
खुद मनाने आ जाते हैं।
लगता है वरदान किन्हीं का,
चाहत किन्हीं की बन जाते हैं।
कभी गोद सोते ममता के,
कभी मेरे हमसफर बन जाते हैं।
दिखते वह पहाड़ के जैसा,
पर दिल से मोम वह बन जाते हैं।
न होते मायूस वह जग में,
देकर जान जान जिला जाते हैं।
होता है जज्बात भी उनमें,
आँसु नहीं दिखा पाते हैं।
बाँध गठरियाँ दर्द भरा वह,
एक गम में शाम बिता जाते हैं।
कर याद व दिन बचपन के,
आप पिता बन खुद निभा जाते हैं।
भोला प्रसाद शर्मा
डगरूआ, पूर्णिया (बिहार)