बदलते गाँव की सूरत – अमरनाथ त्रिवेदी

Amarnath Trivedi

भारत  के गाँव अब सूने लगने लगे हैं ।
धड़ाधड़ दरवाजे पर ताले लटकने लगे हैं।।
बच्चों की मस्ती है शहर घूमने की,
बूढों की आह निकलती  गाँव छोड़ने की।
पढ़ने के नाम पर कुछ ज्यादती कड़ी है,
संबंधों में खटास अब तेजी से बढ़ी है।
खेत खलिहानों से  नाता ज्यों छूटने लगे हैं,
उससे  भी अब  मोह  भंग  होने  लगे हैं।
बूढ़े अपने  शेष  जीवन को देख रो रहे हैं,
वे वैसी मिलन  न  वैसा  प्रेम  देख रहे हैं।
पर जवानों के शौक  बेइंतहा  बढ़  रहे हैं,
उनकी पत्नियाँ भी शौक  में शहर चाह रही हैं।
बच्चे को दूध घी से अधिक चाउमिन भा रही है।
माना कि शहर में है रोजगार की  गारंटी,
पर देहात में भी क्या कम है सृजन की गारंटी।
करेंगे मेहनत तो  खूब अन्न, फल मिलेंगे,
निठल्ले बैठे  रहेंगे तो सब कुछ  बिकेंगे।
शहरों में कट्ठे आध  कट्ठे  में घर बन रहे हैं,
देहातों में ऐसी जमीन तो  बीघों  पड़े हैं।
शहरीकरण का दौर अब तेज हो चला है,
मातृभूमि के लिए यही  बड़ी बला है।
देहातों का जीवन अभी भी कितना सस्ता,
अब भी हल निकालें यदि बचा कोई रास्ता।
नही तो गाँव की सूरत बदसूरत-सी होगी,
जहाँ खपड़े नदारद औ आसमाँ दिख रही होगी।
शहर, दिमागों की दुनिया, वहाँ इज्जत नहीं हैं,
किसी के लिए पल दो पल की फुर्सत नहीं है।
उत्सवों के समय शहर के लोग कभी पीछे न होंगे,
पर मरण के काम में कभी आगे  न होंगे।
है कमाना खटाना  तो  जाएँ  यहाँ से,
मगर यह सब हो जाए तो लौटें  वहाँ से।
यहाँ संबंधों का इतिहास है सदियों  पुराना,
वहाँ स्वार्थों का दिल है केवल  झूठा बहाना।
बेशक घर कई बना लें कई इक शहर में,
पर घर से नाता न तोड़ें अपनी डगर में।

अमरनाथ त्रिवेदी
पूर्व प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बैंगरा
प्रखंड- बंदरा, जिला- मुजफ्फरपुर

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