मन की बात – रत्नेश पण्डित पाण्डेय

Ratnesh Pandey

बड़े दिनों बाद वह, घर अपने वापस आया
बेटी के लिए कुछ गुड्डे-गुड़िए, बेटे को किताबें लाया।
बच्चों में कैसा कौतूहल होगा, सोचा और मुस्काया,
बड़े दिनों बाद वह, जब घर वापस आया।

बच्चे सुनकर खबर यह, पापा आ रहे हैं,
मिल- जुल कर सब घर को, सुन्दर सजा रहे हैं।
मम्मी, दादी, भैया, चाचा, पापा मेरे आ गए,
कहकर बिटिया उछल पड़ी, खुशी के बादल छा गए।

देखें क्या क्या लाए होंगे, बच्चे सब घेर लिए।
कैसे हो..कहो, हाल चाल, बातें अपनी करने लगे,

जो कुछ घटा था अब तक, वह सबसे सुनने लगा..
बच्चों के पास बैठकर, लाड़-प्यार करने लगा।

थोड़ा ही समय बीता था, बातें जब होनें लगीं,
बिटिया आकर पास, कुछ धीरे यूं कहने लगी।

नहीं चाहिए कोई खिलौने, न ही कोई साजो सामान।
भैया को मिली किताबें, मेरा भी कुछ रखिए ध्यान।

मीठी बातें सुनकर पिता को कुछ शरारत सूझी,
बोल पड़ा हंस कर जब ,मासूम की बातें बूझी ।।

अरी ओ बिटिया रानी! बातें करती, बड़ी सयानी ।
लाकर दे दूं यदि किताबें , लेकर क्या करोगी ?
अभी बताओ, मुझको तुम,पढ़-लिख कर क्या करोगी ?

मां- दादी संग घर रहकर, तुम थोड़ा काम करोगी ,
सीखोगी, घर-बार चलाना व आराम करोगी ।

ला दूंगा कुछ गुड्डे खिलौने , घर घर जा खेलोगी ।
बोलो मेरी बिटिया रानी ,पढ़ लिख कर क्या करोगी..?

स्कूल नाम लिखा दो मेरा , बैग-किताबें लाकर दे दो ,
मैं भी पढ़ने जाऊंगी,सबसे जाकर यह बतला दो।

सीखूं मैं भी जोड़-घटाना, पढ़ना-लिखना, चित्र बनाना
चाहूं मैं भी पढ़ने जाना
पढ़ लिखकर फिर नाम कमाना ।।

सपने जो सब भइया से देखें, मैं भी पूरा कर पाऊंगी।
मुझे पढ़ा दो मेरे पापा, अफसर बन जाऊंगी।

कहकर ऐसा बिटिया, थोड़ा सा रूठने लगी
मासूम सी मूरत पिता के मन को, जैसे खोलने लगी।
देखो नन्ही परी, बातें बड़ी करने लगी..

सुनकर बिटिया के मन की, मन में एक हर्ष हुआ
छोटी उम्र की बड़ी बात से, सबको आश्चर्य हुआ।

सोचता रहा वह…

कहते हैं बेटा है तो ,यह एक सहारा है ।
वैसी ही तो बेटी है, जो अंश हमारा है।

फिर भी समाज ऐसा क्यों है , जहां भेद भाव पलता है ।
न जाने कितनी मासूमों को, यह दोहरापन खलता है।

सपनों के पंख लगाकर आतीं, कुल गौरव होती बेटियां।
मर्यादामय “सृष्टि ” जननी, अभिमान हमारा बेटियां।।

अवसर मिला है जब जब, तब कर्मों से शान बढ़ाया है ।
मां भारती का विश्व पटल पर , ऊंचा परचम लहराया है।

सम्मान, सुरक्षा हक समान सब, तब अधिकार जमाने दें,
नये दौर की दुनिया में, अपनी पहचान बनाने दें ।

सोच रहा था जब, तब तक बेटी पास खड़ी रही
मानों नजरों से अपने, मन दर्पण को थी झांक रही ।

जैसा चाहो, करना वैसा, मन को उसके विश्वास दिया।
अच्छे पिता होने का पहले,फिर उसने सबसे वचन लिया ।

जो भी तुम मांगो अब से, सब कुछ ले आयेंगे।
जितना करना चाहोगी, सब मिल तुम्हें सिखायेंगे।

पढ़ लिख कर तुम आगे बढ़कर , घर-देश सम्हालोगी
तुम ‘रत्न रश्मि ‘सुशीला’ हो, सबकी तकदीर संवारोगी ।
धुंधले समाज को रोशन कर, तस्वीर निखारोगी..

सुनकर सबके “मन की बात” चिड़िया चहकने लगी ।
गले से लगकर सबकी प्यारी परी हंसने लगी ।।

खुशनसीब वे हैं जिनकी, बगिया में ऐसा फूल खिला हो,
हंसती खेलती “गौरी” से, घर आंगन सब गुलजार हुआ हो..
घर आंगन सब गुलजार हुआ हो..

रत्नेश पण्डित पाण्डेय
प्राथमिक (प्रखण्ड) शिक्षक
उत्क्रमित मध्य विद्यालय बेहरा,
आरा सदर (दक्षिण) भोजपुर, बिहार

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