मानव-जैनेन्द्र प्रसाद रवि

Jainendra

मानव

यह मानव जीवन पाकर भी नहीं किया कोई परोपकार है।
मोह, माया में लिपटा रहा, यह मानव तन बेकार है।।
सुन्दर तन अभिमान में फूला रहा दिन रात।
किसी के काम आया नहीं है शर्म की बात।।
सुत, दारा और लक्ष्मी सबको जग में होय।
परहित और उपकार में जीवन बिताता कोय।।
मानव तन में लोभ का जब होता है बास।
शुभ कर्म संतोष का होता जाता है नाश।।
दया धर्म के मार्ग पर चलते जाओ भाई।
मान प्रतिष्ठा पाओगे कीर्ति और बड़ाई।।
दरिया जितना देता है उतना ही लेता पानी।
देने से ही कर्ण बना है दुनिया में महादानी।।
खुद के हिस्से से काटकर, बांटकर जो खाता है।
उससे उसका चौगुना, उसके हिस्से में आता है।।
परोपकार सबसे बड़ा है मानव का हथियार।
दुश्मन को भी दोस्त बनाता, पाता सबसे प्यार।।
मानव बनना आसान है, हमारी हाथों में कमान है।
दूसरे की मदद जो करता, वही सच्चा इंसान है।।
दीन दुखियों की करता जो सेवा, प्रेम रस की चखता है मेवा।
तन, मन, धन अर्पित जो करता, कहलाता महान है।।
भूखे को रोटी जो देता, दरिद्रों की झोली भर देता।
यहीं है उसकी मथुरा-काशी, कहता गीता-कुरान है।।
जो हरता है पीर पराई, सबसे पाता मान बड़ाई।
सारा जग है परिजन उसके, दुश्मन मित्र समान है।।

जैनेन्द्र प्रसाद रवि
बाढ़ पटना

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