लॉकडाउन का सबक-विवेक कुमार

लॉकडाउन का सबक

ईश्वर की सुंदर रचना हूं
कहते सब मानव मुझे
आया हूं इस कर्मधाम में,
बना पात्र इस रंगमंच का,
मोहमाया के कुचक्र में फंसकर,
लगा निभाने अपना फर्ज,
पहले अपना बचपन जीया,
माता पिता का प्यार है पाया,

वो जीना वाकई जीना था
जिसमें न था कोई टेंशन,
न कोई रोक न टोक
सदाबहार मेरा वो जीवन
समय बिता बदली भूमिका
सिंगल से अब डबल हुआ
जिम्मेदारी का तब एहसास हुआ,
कुछ समझ पाता बन चुका था पापा
खोया वो सुख चैन
पापी पेट की खातिर
बना कोल्हू का बैल
चंद रुपयों की खातिर
बिखड़ गया परिवार
सारे रिश्ते नाते भूल गया
भूल गया परिवार
पैसे की चाहत ने मुझे
औरों से था दूर किया
चंद वक्त के लिए तरसता
था मेरा परिवार
मां कहती लल्ला बेगाना
पिता को लगता नाकारा
संगनी ने तो यहां तक कह डाला
आप हो सबसे आवारा
फुर्सत के लिए मैं खुद तरसता
तरस गए बिन रैन
दो धारी तलवार लटक गई
फंसा बीच मजधार
समझ को भी न समझ आ रहा
करूं क्या यह न सोच पा रहा
दो जून की रोटी संग
कुछ और पाने की लालसा ने
छीना मेरा सुख चैन
इच्छाएं भी तो अनंत है
फंसा उस महाजाल में
समय बीता बीती बात
खटपट की हो गई शुरुआत
बिगड़ गया माहौल था घर का
सबकी जद में वक्त आ पड़ा
लगा यूं ही गुजर जाएंगे
धरे रह जाएंगे मेरे अरमान
मगर प्रकृति ने अपना रूप दिखाया
कोरोना का जाल बिछाया
दिया एक अनुपम संदेश
समय बड़ा बलवान रे भईया
समय बड़ा बलवान
समय का मूल्य अब जाना
मर्म को भी मैंने पहचाना
डूबते को मिला तिनके का सहारा
लॉकडाउन का पहरा न्यारा
जिस सुख की चाहत में मारा फिरा
मिला वो संग परिवार
पता चल गया राज है आज
सबसे बड़ा है घर परिवार
सुबह का भूला शाम घर आये
भुला उसे कहा न जाय
सबक है जन जन के लिए
बात ये मैं बतलाता हूं
परिवार है जीवन की कड़ी
याद है रखना हमें हर घड़ी
परिवार संग जिंदगी बिताएंगे
एक नई पहचान बनायेंगे।

विवेक कुमार
उत्क्रमित मध्य विद्यालय,गवसरा मुशहर
मड़वन, मुजफ्फरपुर

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