संयुक्त परिवार-मनोज कुमार दुबे

संयुक्त परिवार

घर के आंगन में जो खुशियाँ हमने पायी है।
वक्त वो शायद बीत गया जो हमने बिताई है।।
दादा जी के कंधे पर अपनी थी सवारी।
मेरी दादी की गोद भी स्वर्ग से थी न्यारी।।
वो पुराने किस्से चंदा मामा की कहानी।
पल भर में रूठना हँसना ऐसी थी जिंदगानी।। 
माँ का दुलार प्यार बड़ी माँ का पढ़ाना।
गिनती सिखाना हाथ पकड़कर लिखाना।।
इंसान खुद से दूर अब होता जा रहा है।
वो संयुक्त परिवार का दौर खोता जा रहा है।। 
किसान अपने हाथ से जैसे बीज बोता था।
भाई बहनों के साथ घर ही पाठशाला होता था।।
संस्कार और संस्कृति रग रग में बसते थे।
उन दौर में हम मुस्कुराते नही खुलकर हँसते थे।।
मनोरंजन के कई साधन हमारे पास है।
निर्रथक निर्जीव इसमें नहीं सांस है।।
आज गर्मी में एसी जाड़े में हीटर है।
अपने रिश्तों को मापने के लिए स्वार्थ का मीटर है।।
वो समृद्ध नही थे फिर भी दस दस को पालते थे।
खुद ठिठुरते मगर अपने बच्चों पर कंबल डालते थे।।
मैं आज की युवा पीढ़ी को एक बात बताना चाहूँगा।
सबके अंतः करण में एक दीप जलाना चाहूँगा।।
अपनो के बीच की दूरी अब सारी मिटा लो।
रिश्तो की दरार भर लो उन्हें फिर गले लगा लो।।
अपने आप से जीवन भर जो नजरे चुराओगे।
अपनो के ना हुए तो किसी के ना हो पाओगे।।
फैशन करो परन्तु मर्यादा ना गवाओ।
श्रेष्ठजन के आगे अपने सर को झुकाओ।।
सब कुछ भले ही मिल जाये पर अपना अस्तित्व मिटाओगे।
बुजुर्गों की छत्रछाया में ही महफूज रह पाओगे।।
होली बेमानी होगी और दीपावली झूठी होगी।
अगर पिता दुखी और माँ रूठी होगी।।

मनोज कुमार दुबे
राजकीय मध्य विद्यालय बलडीहा
प्रखण्ड लकड़ी नबीगंज
जिला सिवान
8953040684

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