कविता ! कहाँ हो तुम,
उदासियों की परत में दबी,
यह कैसी आवाज है तुम्हारी,
कराहने की,
जैसे कोई सीसा सा चुभ गया हो,
और सुंदर कल्पनायें निचुड़ सी गयी हों?
कविता, फिर तो नहीं है
तुम्हारे उठने की उम्मीद!!!
लेकिन यह सब भी हो न सकेगा…!
तुम्हें रोने की आजादी भी कहाँ है,
तुम्हें उठना है,
अभी लम्बी राह चलनी है तुझे,
हँसना है तुझे,
और हँसाना भी है…(???)
नहीं, यह जिद नहीं मात्र है,
न कोई मेरा वैयक्तिक आग्रह है,
यह तुम्हारी भी अस्मिता से जुड़ा है,
यह सत्य का सत्याग्रह है…
और मैंने खोल दी हैं
सारी खिड़कियां,
पल्ले और दरवाजे…
दुख और गम के अगनित वायरसों के बीच,
बिना इनकी परवाह किए,
कविता! भला बताओ…
इससे अधिक खुद की परवाह
और क्या कर सकता हूँ मैं!
इससे अधिक तुम्हें बचाने का
भला और क्या जतन होगा…(?)
आज और अभी, फिर से
तरोताजा होना है तुम्हें,
धूल, गर्द को फिर से नकारना है तुम्हें,
आज और अभी की कविता होनी है तुम्हें,
फिर चाहो तुम
रो सको तो रो लेना,
हँस सको तो हँस लेना…
चलो उठो…अब और भीड़
अच्छी नहीं लगती,
किस्सा ए हार सुनाने वालों की,
मजा लेकर आँसू बहाने वालों की,
आओ, यह उद्घोषित करें
पुनः पुनःश्च…
की अभी युद्ध बाकी है,
की अभी स्वरयुक्त है
आज और अभी की कविता,
की अभी भी लययुक्त है
आज और अभी की कविता…!!!
गिरिधर कुमार(शिक्षक)
उ. म. वि जियामारी
अमदाबाद, कटिहार