कारागृह की वेदना
करुण” क्रंदन से “कारागृह”
कांप उठा वह कक्ष-निरीह,
“काल” ने कैसा खेल रचा
कोठरी में था हाहाकार मचा।
मौन “कोठरी” सब सह रही थी
मानो प्रभु से वह कह रही थी
एक जननी का “चित्कार” सुनो
हे!जग के “पालनहार” सुनो!
यह सातो दरवाजे साक्षी हैं
वह भाई नहीं एक “भक्षी” है,
“कंस” ने कैसा अनर्थ किया
भाई के नाम को व्यर्थ किया।
फिर से एक बार वह आएगा
“ममता” को तड़पायेगा,
उसे “देवकी” रोक ना पायेगी
“भूमि” पर लोटकर रोयेगी।
हे कृपा निधान ! सुनो विनती
मैं “कारागृह” विनय करती ,
एक माँ की आह बेकार न हो
कंस का शपथ साकार न हो।
हे नाथ! सुनो तुम मेरी व्यथा
अबला का लाल बचेगा क्या!
सारे बालक को छीन लिया
निर्मोही ने उन्हें मार दिया।
प्रभु शेष-शैय्या से उतरो तुम
अबकी बेर उबारो तुम,
कातर “उर” की पुकार सुनो
हे नाथ! माँ की चित्कार सुनो!
हे! कमल-नयन हे “पालनहार”
ले लो हाथ में “धर्म”का भार,
तुम्हीं बचा लो “कोख” की लाज
करो न देरी तुम आओ आज!
सुन “कारागृह” की करुण नाद
तब “दिनदयाल” को आई याद ,
उन्हें एक अवतार तो लेना है
“द्वापर” में धरा पर आना है!
धरती से अधर्म मिटाना है!!
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ.अनुपमा श्रीवास्तवा 🙏
मुजफ्फरपुर, बिहार