वर्षा ऋतु
वर्षा की रुत है बड़ी सुहानी,
वर्षा तू ऋतुओं की है रानी,
कभी तरसाती बूंद-बूंद को,
कभी बरसती है घोर-घनी।
तेरे आगमन से मन झूम उठा,
जनजीवन में नव संचार हुआ,
सूखे पौधों का कायाकल्प कर,
शीतलता से तू उपचार किया।
तेरी छटा है मन को लुभा रही,
तन की उमसता तू मिटा रही,
चहुँ ओर हरियाली फैला गई,
निज स्नेह-सा मन को जता रही।
ऐ बूंद! जब तू धरा पर बरसती रही,
हवाओं में हल्की फुहार आती रही,
तुझे देख मन हो गया प्रफुल्लित,
तेरे हर बूंद से धरा यूँ महकती रही।
तेरे बूंद से सूखा बीज अंकुरित हुआ,
तेरे आने से मन का बगीचा हर्षित हुआ,
मन-मयूरा पर शहनाई बन तू गुँजती है,
जैसे कोई नया सृजन त्वरित हुआ।
बच्चे और बूढ़े उन्मुक्त गगन में,
छाये बादल पर टकटकी लगाते,
बरस जा मेघा ज़म के हम पर,
ऐसा कह कर मन को बहलाते।
इतने में रिमझिम बरसात हो गई,
ख़ुशनुमा दिन और रात हो गई,
किसानों के फसल लहलहाते रहे,
टिटहरी, गिलहरी सब टरटराते रहे,
वर्षा ऋतु की क्या करुँ मैं बखान,
मोर भी नाचते और गुनगुनाते रहे।
नूतन कुमारी (शिक्षिका)
पूर्णियाँ, बिहार