हे मन ! गाँधी को ढूँढू रे,
नगरी-नगरी गाँव रे।
नहीं मिले वो मेरे बापू,
देख लिया सब ठाँव रे।
नयन थक गए,
वसन भी फट गए,
देख न पाई आस रे।
डगर-डगर और गली में देखा,
पाँव न दे अब साथ रे।
जो मन देखा अपना तो फिर
गाँधी मिले उदास रे।
लाख मैं पूछा बोले ना कुछ,
मन-ही-मन मन पछतात रे।
बोले मिल वो शास्त्रीजी से,
देश का देखो हाल रे।
दोनों जब धरती पर आए,
करने लगे विचार रे,
सत्य को रोता पाया जग में,
हिंसा का है राज रे,
गाँधी हुए उदास रे।
फटे वसन में हरिया रोये,
पेट गए पीठ ठाँव रे,
कहाँ गए हैं धनकुवेर सब,
गाँधी पूछे हाल रे।
राजनीति ने गाँधी बेचा,
बड़ी-बड़ी है दुकान रे,
शास्त्री ठिठके बोले बापू,
काहे खड़े उदास रे।
दिन दुपहर में, संध्या पल में,
या हो रात बिरात रे,
गाँधी की तस्वीर लगाकर,
बहुत बनावत बात रे।
कहते हैं शास्त्री नमन है बापू,
मत लो मोको साथ रे,
कैसे देखूँ हाल वतन का
गाँधी हुए उदास रे।
डॉ स्नेहलता द्विवेदी आर्या
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय
शरीफगंज कटिहार, बिहार