नादान मानव
प्रकृति मॉं ने कितना समझाया,
सतर्क ,सावधान किया,
न माना मानव,
तो डराया, धमकाया,
पर नादान मानव!
जिद पर अड़ा हुआ है,
चाँद पाने की ख्वाहिश में,
धरती को खो रहा है,,,,,
विकास की अंधी होड़ में,
प्रतिद्वन्दिता की गंदी दौड़ में,
नादान मानव!
विनाश के मोड़ पर खड़ा है,,,
स्वार्थी हुआ मानव,
समझ ही नहीं रहा है,
नदी,पेड़,पौधों,
वन्यजीवों की भी ये
धरा है,,,
पर्यावरण को नष्ट करता,
नादान मानव!
जैवविविधता को खो रहा है,,,,
प्राकृतिक आपदाएं,वैश्विक तापन,
ओजोन छिद्र, जलवायु परिवर्तन,
महामारी की अगन,
ग्लेशियर का गलन,
नादान मानव!
सबकुछ झेल रहा है,,,,
भूमि,जल,वायु,ध्वनि
का प्रदूषण,
प्राकृतिक संसाधनो,
जल का अति दोहन,
नादान मानव!
पर्यावरण में जहर घोल रहा है,,,
संभलने की बारी,
अब है हमारी,
नादान मानव!
वर्ना प्रकृति मॉ से,
मिलनी और सजा है,,,,,
न हो सिर्फ नारा,
पर्यावरण संरक्षण,
पेड़़ लगाएं,काटे नहीं वन,
प्रदूषण को रोकें,
संरक्षित रखें वन्य जीवन,
कर्तव्य मानें इसको,,
सुरक्षित रहे जीवन।।।
स्वरचित :-
संगीता कुमारी सिंह
शिक्षिका ,भागलपुर