नारी बेचारी,पापा की प्यारी,
भैया की दुलारी।
मायके की लाज बचाती, ससुराल की आन निभाती।
काम के बोझ की मारी,
थकी-हारी ,नारी बेचारी।
सबके लिए बनी नारी,
उसकी नहीं होती, किसी से यारी।
उसके बिन किसी की न बनती,पर उसके विचारों की खास होती नहीं गिनती।
सबके लिए जीने वाली ,सबकी होती आज्ञाकारी ।
किस्मत की मारी..नारी बेचारी।
न मायका अपना, न ससुराल अपना।
सब उसके, वह होती सबकी।
पर उसे यह सब, लागे अधूरा सपना।
अपनों की जीत के लिए, अपनों से हारी…नारी बेचारी।
घर में खटती ,बाहर भी खटती , घरवालों के लिए जीती,पर घरवालों से न पटती।
आधी आबादी कहाती,घर को स्वर्ग बनाती।
सृष्टि की रचयिता,कवियों की सुंदर कविता।
नारी बिन होती ,यह जग सूनी।
पर नारी नहीं कर सकती मनमानी।
हर क्षेत्र में पहचान बनाने वाली, देश के लिए विजयी पताका लहराने वाली।
फिर भी कमजोर कहाने वाली।
सबसे हारी, नारी बेचारी।
दीपा वर्मा
रा.उ.म.वि.मणिका
मुजफ्फरपुर