मनहरण घनाक्षरी छंद
जगत से न्यारा रूप,
ढ़ल जाते अनुरूप,
बनकर चितचोर, सबको लुभाता है।
पल में ही रूठ जाता,
तुरत ही मान जाता,
चंचल निश्चल छवि, रोते को हँसाता है।
दोस्तों की आहट पाके,
छिप जाता कहीं जाके,
रोज दिन खेलने को, बहाना बनाता है।
बच्चे होते नटखट,
दौड़ते हैं सरपट,
खाने और पढ़ाई में, नखरे दिखाता है।
जब हम प्यार करें,
कभी एतबार करें,
खुश होके बड़ी-बड़ी, बातें भी बनाता है।
जब भी उदास होते,
हम जो निराश होते,
तोतली बोली से सारे- गम को भुलाता है।
कभी किसी बात पर,
अड़ जाता जिद पर,
अपनी मांगों के आगे, बड़ों को झुकाता है।
शैतानी जो बढ़ जाती,
सिर कभी चढ़ जाती,
तभी लेता सीना तान,अखियाँ मिलाता है।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना