उसे घमंड था कि,मैं हूँ अपराजेय
हूँ त्रिलोक विजेता।
दिग,दिगंत है हमारी मुट्ठी में,
पर भूल रहा था वो।
अपराजित होने के लिए,
मिथ्या दम्भ,अभिमान का
करना पड़ता है दमन।
इसलिए अपराजित होने का वरदान पाकर भी,
राम के हाथों पराजित हो गया
त्रिलोक विजेता रावण।
यूं तो था महाज्ञानी,पर था
दुराचारी,अत्याचारी,दंभी,व्यभिचारी।
मुनिवेश धर हर लाया था
सूने में वो अबला नारी।
यही भूल एक उनकी
महाप्रतापी होने पर प्रश्नचिन्ह लगा गया,
पुण्य जो भी था अर्जित
सब पाप में बदल गया।
पुण्य हुए शेष,पाप का पलड़ा हुआ भारी
विनाश के पथ पर चल पड़ा,
उनकी मति गयी थी मारी।
परिणाम की परवाह किए बिना
अपनी बगिया खुद उजाड़ी।
प्रभु से ही युद्ध कर बैठा
ऐसा था वो महापापी,अहंकारी।
हुआ राम के हाथों पराजित
जिसे अहं था,मैं हूँ योद्धा अपराजित।
संजय कुमार (अध्यापक )
इंटरस्तरीय गणपत सिंह उच्च विद्यालय,कहलगाँव
भागलपुर ( बिहार )