मुखौटा--पद्यपंकज

मुखौटा-

Jaykrishna

सुंदर मुखौटा लिए चेहरे पर,
ईमानदारी का रंग चढ़ाया था।
ईमान बेच कर उपदेश दे रहे,
गीता का कसम खाया था।।
दीवारें चिख कर कुछ कह रहे थे ।
“आंगन की मिट्टी सब सुना था”
गड्ढे देखकर मुस्कुरा रहे थे।।
व्यवस्था वही पुराना था,
कौआ भी बदलाव चाहते थे।
खिड़की पर कांव कांव करता था ।।
कब बादल फटे और बिजली चमके।
कई वर्षों से यही चाहता था।।
नज़र देखकर मौन पड़ जाते,
जुवां का ना कोई सहारा था ।
मनमानी कितने कर रहे थे,
दरिया का ना कोई किनारा था।।
“नारी तो एक सम्मान है”
अपमान तू कैसे कर डाला।
इसके बिना तो जग सुना है ,
तू अपनी ज़मीर को मार डाला।।
उठी चिंगारी अब देखो मातृशक्ति की।
ललकार में तू शर्मसार हुऐ,
कितने षड्यंत्र रचा था तूने।
फिर भी तेरे हार हुऐ ,
राह दिखाई अब पढ़ने लगे।।
“सच्चे सुगम फरिश्तों का”
दुनियां भी तूझे भूल जाती।
अंधकार से बने रिश्ते का,
वक्त की मांग है ढल जाओ।
फूल बनकर तू खिल जाओ,
फिर यही आशियाना तुम्हारा है।
रग रग में थे फिजाओं की खुशबू,
उसी में तुम्हें बह जाना था।।
दीवारें चिख कर कुछ कह रहे थे,
आंगन की मिट्टी सब सुना था।।
सुंदर मुखौटा लिए चेहरे पर,
ईमानदारी का रंग चढ़ाया था।।

 

जयकृष्णा पासवान
स०शिक्षक उच्च विद्यालय बभनगामा
बाराहाट बांका

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