मानव
अन्तर्मन से देख जरा तुम
तन यह कितना प्यारा है।
बड़े भाग्य से तुझे मिला है।
पावन निरुपम न्यारा है।।
पीर सदा दीनों की हरना
तुमने कभी विचारा है।
जन्म लिये गर इस वसुधा पर
क्यों न इसको उबारा है।।
करना मानव शुभ कर्म सदा
यह तो परम सहारा है।
मातु पिता की सेवा ही तो
जीवन की रसधारा है।।
डोर सदा आशा की पकड़ो
इस पर तो जग सारा है।
मत भूलो कर्म को मानव
सबको इसने तारा है।।
कुदरत का उपहार हमेशा
ललित कलित उजियारा है।
नहीं बनना दानव कभी तुम
‘संग जियो’ यह नारा है।।
सकल जगत में मानवता ही
देता सुखद किनारा है।
बनो कर्मठ सदा मानव तुम
सार्थक ध्येय तुम्हारा है।।
देव कांत मिश्र ‘दिव्य’
भागलपुर, बिहार