पर्यावरण-भोला प्रसाद शर्मा

Bhola

पर्यावरण

सोच-सोचकर ये मन सोच नहीं पाता,
क्यों हे! मानव पर्यावरण को छ्लाता।
कहता मैं कर्म करता नित भला सबका,
पर व्यावहारिक पुरुषार्थ कभी न दिखलाता।

मन मसक्क्त की गलियों में खूब लगाता,
कुछ कर नये आयामों से सबको लुभाता।
थोड़ी सी बेरुखी मन भाव देख वह,
टकराकर खुद को ही आघात पहुँचाता।

चाहता की रुख बदल दूँ कायनातों की,
सम्भल जाता सोच मासूमियत के हिदायतों की।
भूलकर भी मैं भुला दूँ अपने नश्लें को,
असर ही कहाँ नज़र आ रहा है वह सलाहियतों की।

जन्म तो अक्सर लेते सभी इन हवादार घरानों में,
कहाँ याद रहती जो वादे किये आपने आने में।
वह हसीन वादियाँ देख भूल गया सब वादा,
कट गुजर गई दिन अपनी खुशियाँ लुटाने में।

हम तो लगे हैं खोखले वजूदों को सजाने में,
किसी की हस्तियाँ बिक गई माहौल रंगीन बनाने में।
हमें याद कहाँ पर्यावरण के लिए कुछ समय निकालूँ,
हम तो झूम रहे धनियाँ पुदिना के बर्थडे मनाने में।

भोला प्रसाद शर्मा
डगरूआ, पूर्णिया (बिहार)

Leave a Reply