विनय-दिलीप कुमार गुप्त

Dilip gupta

Dilip gupta

विनय 

तुमसे भक्ति विकसित होती
संस्कृति पल्लवित पुष्पित होती
मानवीय गरिमा का हो सार
शांति सद्भावों के स्वर्णिम द्वार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

सम्मानित जीवन देते हो
हर विपदा को हर लेते हो
निर्मल मन का वर देकर
खोल देते तुम मोक्ष का द्वार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

दुर्भाव दंभ मिट जाता है
शत्रु भी मित्र बन जाता है
चतुर्दिक सुगंधि फैलाकर
सज्जनों का कराते सहकार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

महानता की कसौटी हो
सत्य की स्वीकृति हो
विध्वंस को दूर टालकर
देते नित नूतन आधार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

अन्तःकरण की गहन शांति हो
व्यक्तित्व की धवल कांति हो
बल बुद्धि आभा ओज सजाकर
संत समागम कर देते साकार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

विद्वता की पहचान हो
ज्ञानियों का सहज ज्ञान हो
मानव के तुम हो पूर्णाधार
तुमसे सुरभित सुंदर संसार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

कीर्ति प्रतिष्ठा वैभव देते
दुर्लभ को सुलभ करा देते
शिष्टता उदारता तटस्थता गहाकर
स्नेहिल सद्भाव के तुम हो सिरजनहार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

बुद्ध के मद्धिम पथगामी
श्रीराम का वनवास हो तुम
माधव का अतिथि सत्कार
उर व्योम पाता अनंत विस्तार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

हिय वीणा के तारों से झंकृत
मन मानस सिंधु से निःसृत
प्रेम भाव मुखरित मल्हार
पावस की तुम मधुर फुहार।
विनय! तुम हो प्रभु का उपहार।

दिलीप कुमार गुप्त

मध्य विद्यालय कुआड़ी

अररिया 

Leave a Reply