बचपन
अल्हड़ है, मदमस्त है
आसमा, छूने की चाहत है।
नदियों सी चंचल है
पवन सी पागल है
जानने को सबकुछ उत्कल है।
आंखों में खुशी, होठों पे हंसी
पल में ही रूठ जाना,
फिर पल में ही मान जाना,
क्या गजब होता,
बचपन का जमाना।
उमंग है, उत्साह है
पर्वत के पार जाना,
सागर को भी छलांग जाना,
लगे न कोई अनजाना।
न कोई छल कपट
न हीं जिम्मेवारी कोई
अल्हड़ है, मदमस्त है
आसमां छूने की चाहत है।
न कोई बड़ा,
न छोटा मुझसे
हर बात बन जाती प्यार से
वो परियों की कहानियां
बसती जहां अपनी दुनियां।
तितलियों संग उड़ती,
फूलों संग बातें करती
खेल, कूद और मस्ती।
मन में प्रश्नों का अंबार है
जोश की भरमार है
न थकान है न नींद है
हर पल कुछ कर गुजरने की चाहत है।
अल्हड़ है मदमस्त है
आसमां छूने की चाहत है।
न कोई खोना न कोई पाना
क्या गजब है बचपन का जमाना।
ब्रह्माकुमारी मधुमिता’ सृष्टि’
पूर्णिया( बिहार)