बचपन
चल मिलकर हम दोनो खेलें
तू भागो, हम तुझको छू लें,
चल घर से दूर “ओसारे” में
खेलेंगे हम चौबारे में।
आँख-मिचौली, डेंगा-पानी
या कर ले कोई मनमानी
चल हम दोनो बाग में दौड़ें
अमिया तोड़ें, तितली पकड़ें।
सो गए हैं सब घर के अंदर
मौका मिला है सबसे सुन्दर,
सारा दिन पहाड़ के जैसे
भरी दोपहर कटेंगे कैसे।
तुम अपनी गुड़िया ले लेना
गुड्डे के संग ब्याह रचाना,
मैं जब तक एक नाव बनाऊं
उसमें गुड्डे को बैठाऊं।
धमा-चौकड़ी कभी न रुकती
खेल-कूद से मन न थकती,
शायद इसी का नाम है बचपन
मेरा तूझे सलाम है “बचपन”।
देख इन्हें आखें मुस्काई
यादों में “बचपन” फिर आई,
अपना बचपन ऐसा ही था
कुछ खट्टा कुछ मीठा भी था।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा 🙏🙏
मुजफ्फरपुर बिहार
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