चीरहरण
द्रोपदी सभा में चीख रही लाज बचाए कौन?
सभासद स्तब्ध सभी हैं नजर झुकाए मौन।।
भीम, अर्जुन, धर्मराज बैठे हैं चुपचाप।
वीरों की इस सभा को सूंघ गया है सांप।।
कभी निहारती अर्जुन को कभी गांडीव, तीर।
कभी भीम की गदा को कायर है पांडव वीर?
था गांडीव जब टंकारता हिलती पर्वतों की नींव।
गुरु द्रोण का शिष्य क्यों आज हो गया क्लीव।।
गुरु द्रोण को धिक्कारती क्या टूट गए हैं वाण?
आसन पर विराजमान हैं सहकर भी अपमान।।
पितामह को निहारती जिनको काठ गया है मार।
राजा पांडु की पुत्रवधू खड़ी सभा बीच लाचार।।
एक अबला का चीरहरण क्या वीरों का है धर्म?
वीर कहलाने पर इनको शायद नहीं आती है शर्म।।
हस्तिनापुर को नहीं शोभता ऐसा निंदित कर्म।
अंधा राजा का राज्य भी हो गया है बेशर्म।।
महारथी कहलाते हो अर्जुन, शकुनी, कर्ण।
सभी को धिक्कारता सभा छोड़ गया विकर्ण।।
दु:शासन वस्त्र है खींचता दुर्योधन करता अठ्ठाश।
द्रोपदी असहाय खड़ी एक लिए गोविंद की आस।।
तेरी शरण में पड़ी अब आओ हे गिरधारी!
गिद्धों की कुदृष्टि से बचाओ लाज हमारी।।
तुम्हीं हो रक्षक मेरे पिता, भाई बंसी वाला।
कोई नहीं है इस अबला की लाज बचाने वाला।।
कानों में करुण पुकार पड़ी जब चक्र सुदर्शन धारी की।
पल में अंबार लग गया तन में लिपटी साड़ी की।।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’,
पटना, बिहार