धुंध के बीच
स्याह सा कुछ तैरता हवाओं में
कवि की मुस्कराहट से
बौखला जाता है
अरे मैं कोरोना हूं
तुम बड़े ढीठ इंसान हो
डरते नहीं मुझसे।
धत्त! ये तो हद है
कवि को चेतावनी!
कविता की अनायास हँसी
फलक पर तैरने लगती है
नासमझ बच्चे की
खिलखिलाहट की तरह
अब भी हां अब भी..
मैं कहता हूं
पूछ लो इतिहास से
तूफानों की नियति का
क्या सच रहा है
जीती है मानवता ही
मनुजता ही प्रबल रहा है
और फिर…
और फिर…क्यों मान लें
कि हम चूक गए हैं
कि हमने छोड़ दी है हिम्मत
टकराने की
कि हम अपनी अजेयता को
भय के साये में
नहीं देख पा रहे…!
नहीं, कभी स्वीकृत नहीं हो सकती हार…
जो विजय पथ का राही है
जो विभूषण है, शाश्वत है
हर प्रलय पर भारी है
यही संकल्प, ओज विश्वास
इस धुंध के बीच
दुहराते हैं
हर स्याह रात के बाद
सुबह है
विश्वास मन में लाते हैं…!
गिरिधर कुमार