एक वृक्ष की करुण व्यथा
छोटा सा मैं नन्हा पौधा,
सड़क किनारे पनप रहा था।
आते जाते मुसाफिरों को
देख देख घबड़ा जाता था
कुचल न दे कोई मुझको
सोच सोच मुरझा जाता था।
बारिश के आते ही फिर से
हर्षित हो मुसका लेता था।
शनैः शनैः दिन बीत रहे थे
मैं भी हर पल बढ रहा था।
सकुचाता शर्माता मैं भी
युवा वृक्ष में बदल चुका था।
जीवन के उन गत वर्षों में
अनगिनत ठोकरें खा चुका था
लड़कर उन थपेरों से मैं
अपने पथ पर अडिग खड़ा था।
युवा मन की गहराईयों में
बहुत सी इच्छाएं मचल रही थी
बसंत के आते ही मुझको
मानो अमृत रस मिल जाता था
औरों को खुश देख देखकर
मैं भी फिर खुश हो जाता था।
समय निरंतर बढ़ रहा था,
मैं भी प्रौढ़ बन चुका था।
सड़क किनारे पला बढा मैं,
शानदार वृक्ष में बदल चका था।
मेरी सुन्दरता के चर्चे अब
दूर-दूर तक होने लगे थे।
शाम सवेरे मुझे देखने
लोग़ बाग भी आने लगे थे।
अपने बारे में सोच-सोचकर
मैं भी अब इतराता था
अपनी सुन्दरता देख देखकर
मन ही मन मुस्काता था।
पर हाय रे किस्मत
नहीं पता था मुझे कि
मैं भी कुचला जाऊंगा
जालिम समाज के बीच में मैं
घुट घुटकर मर जाऊंगा।
काटे जाएंगे रोज हमारे अंगोँ को
फिर छील छीलकर घर को
सजाया जाएगा
बहेंगे खून हमारे जख्मॉ से
होगा दर्द हमें भी
पर हमारे आंसुओं को
देखने वाला कोई नहीं होगा।
काश कि मैं बालपन में ही
कुचल दिया गया होता,
तो आज अपने अरमानों को
यूँ दम तोड़ते हुए नहीं देखता।
काश…
प्रीति
कन्या मध्य विद्यालय मऊ विद्यापति नगर समस्तीपुर 💐💐