गांधारी का विलाप
महाभारत का हुआ था अंत ;
मचा था हाहाकार दिग्दिगंत ।
रण-भूमि में बिखरी थीं लाशें ;
देखकर थम जाती थीं सांसे ।
कहीं पड़े थे सिरकटे शरीर ;
फैला हुआ था सर्वत्र रुधिर ।
कई शव थे वाणों से बिद्ध ;
मड़राते थे कौए और गिद्ध ।
मौज मना रहे थे कुत्ते-सियार ;
बह रही थी दुर्गन्धयुक्त बयार ।
असंख्य स्त्रियाँ हुई थीं विधवा ;
सूनी थी गोद, जो थीं सधवा ।
बहनों ने खोए थे अपने भाई ;
घर-घर में थी मौत की परछाई ।
बैठी गांधारी शवों से लिपटकर ;
करती थी विलाप सिर पटककर ।
तभी सपाण्डव पहुँचे गिरिधारी ;
दिख पड़ी विक्षिप्त-सी गांधारी ।
पहुँच गए वे सब उसके पास ;
बातें करने की लगाकर आस ।
उन्हें देख गांधारी हुई उद्वेलित ;
क्रोध से हृदय हुआ आंदोलित ।
फिर गांधारी ने तोड़ी ख़ामोशी ;
ठहराने लगी युधिष्ठिर को दोषी ।
केशव ने तब किया हस्तक्षेप ;
उचित नहीं है इन पर आक्षेप ।
बोली गांधारी, सुनो मधुसूदन !
कहूँगी तुम्हें अब देवकीनंदन ।
धर्मराज नहीं तो दोषी कौन ?
बोलो केशव ! क्यों हो मौन ?
मैं हूँ तुम पर सर्वाधिक क्रुद्ध ;
तुम चाहते तो न होता युद्ध ।
सोचा नहीं मेरे बारे में थोड़ा ;
एक भी पुत्र जीवित न छोड़ा ।
तुम तो हो कृष्ण सर्वशक्तिमान ;
फिर भी मचाया युद्ध घमासान ।
तुम्हारे कारण मैं हूँ शोकसंतप्त ;
करूँगी मैं तुम्हें अब अभिशप्त ।
हुआ है मेरे वंश का सर्वनाश ;
तुम्हारे भी वंश का होगा नाश ।
श्रीकृष्ण ने रखा शाप का मान
और दिया उन्हें उचित सम्मान ।
कहा प्रभु ने, सुनें हे राजमाता !
आपको मैं गूढ़ रहस्य बताता ।
जानें आप मेरे सत्य स्वरूप को ;
पहचानें मेरे वास्तविक रूप को ।
जब-जब धर्म की होती हानि ,
साधुजनों को जब होती ग्लानि,
तब-तब मैं लेता हूँ अवतार ;
मैं ही हूँ जगत का करतार ।
मैंने ही रचा है विधि का विधान ;
मैं ही हूँ परमेश्वर व दयानिधान ।
पापियों का अंत था मेरा उद्देश्य ;
अन्यथा अवतरण है निरुद्देश्य ।
अधर्मियों का अंत था अनिवार्य ;
अतएव युद्ध भी था अपरिहार्य ।
कर्म-फल का भोग है प्रारब्ध ,
जिससे मानव रहता आबद्ध ।
स्वयं विधाता ही करें हस्तक्षेप ;
विश्व-नाटक का होगा पटाक्षेप ।
पुत्रों की मृत्यु से हैं आप संतप्त ;
कुंती बुआ हैं कम नहीं उत्तप्त ।
मारा गया है ज्येष्ठ कौन्तेय ,
जिसे लोग समझते थे राधेय ।
मारे गए हैं आपके सौ पुत्र ;
द्रौपदी ने भी खोए अपने पुत्र ।
अभिमन्यु का तो कहना क्या ?
हुई थी उसकी निर्मम हत्या ।
गांधारी करने लगी पश्चाताप ;
क्रोधवश प्रभु दिया था शाप ।
कर दो जगदीश्वर मुझे क्षमा ;
शोकविह्वल है आज एक माँ ।
दुर्योधन ने माना होता संदेश ;
गांधारी को न होता शोक अशेष ।
यदि उसने न किया होता हठ ,
भ्राताओं सहित न मरता शठ ।
पतितों को सदैव मिलती है सज़ा ;
धर्म की सर्वदा फहरती है ध्वजा ।
परेशान तो हो सकते हैं सज्जन ;
अंततः पराजित होते हैं दुर्जन ।
उचित नहीं है पालना वैमनस्य ;
सदैव श्रेयस्कर है सामंजस्य ।
विनाश की जड़ होता है मोह ;
भाई-भाई में करवाता विद्रोह ।
दिलीप कुमार चौधरी
म.वि. रजोखर, अररिया
【 बिहार 】