हमारी संस्कृति की पहचान गंगा
मैं हूँ गंगा,
भारतीय संस्कृति की पहचान
कैसे व्यक्त करूं मैं अपनी व्यथा
खो रही हूं मैं अपना रंग रूप
प्राकृतिक छटा का दिव्य स्वरूप
मत करो दूषित करके गंगा का अपमान
सुदूर हिमखंडों से पिघलकर
पर्वतों से निकलकर
जमीन को उर्वर कर
हमें पावन करती है गंगा
यह जीवन का आधार है
भारत मां का श्रृंगार है
यहीं से मानव सभ्यता का
हुआ क्रमिक विकास
नदियों से ही सीखा मानव
जीवन का विस्तार
इन सभ्यता के विकास में
कई धाराएं मेरी कई प्रजातियां
हुई विलुप्त
मानव के इस विकास ने
किया गंगा का आंचल तार तार
अब गंगा कर रही एक सवाल
मेरे आंचल को पतित करने का
कौन है जिम्मेदार ?
बीनू मिश्रा
भागलपुर
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