हाँ मैं मजदूर हूँ
जिम्मेदारी के “जुऐ” को
कांधे पर लेकर ढ़ोता हूँ,
सम्मान की रोटी की खातिर
मैं मजदूर बन जाता हूँ।
मेहनत के बल पर ही तो मैं
सूख का “जीवन” जीता हूँ,
सम्मान की रोटी की खातिर
मैं मजदूर बन जाता हूँ।
लोभ नहीं है मुझे किसी से
ना ही “छीन” कर लाता हूँ,
सम्मान की रोटी की खातिर
मैं मजदूर बन जाता हूँ।
“रब” के दिये दोनों हाथो से
“किस्मत” अपनी लिखता हूँ,
सम्मान की रोटी की खातिर
मैं मजदूर बन जाता हूँ।
कसक नहीं है कुछ खोने का
तिनके से नीड़ बनाता हूँ,
सम्मान की रोटी की खातिर
मैं मजदूर बन जाता हूँ।
खुद की क्या तारीफ करूँ
“औरों” का महल बनाता हूँ,
थककर अपनी छोटी कुटिया में
चैन की नींद सो जाता हूँ।
स्वरचित 🙏🙏
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर बिहार