इंसान-प्रभात रमण

 

इंसान

अब मैं ही मैं हो गया है
हम शब्द जाने कहाँ खो गया है ।
पुरखों का नाम भुला दिया
अपना अभिमान चला गया ।
फिर भी हम बहुत प्रसन्न हैं
अपने लिए ही आसन्न हैं ।
हम जिसे समझते आलय हैं
वह तो कोई देवालय है
पर देव् नही अब रहता है
माँ बाप के लिए कुंठालय है ।
न घर है अब न आंगन है
भूमि का वह एक टुकड़ा है
जिस पर सब भाई मरते हैं
सूख चैन सभी का हरते हैं ।
न बच्चों के लिए अब मेला है
न बाँहो का वह झूला है ।
सब अलग थलग से पड़े हुए
नित निंदा में हैं लगे हुए
सब एकल होकर रहते हैं
अपने को मानुष कहते हैं ।
जो धन था वो तो चला गया
जाने क्या संचय करते हैं ?
सब छोड़ यहीं तो जाना है
फिर भी क्यों सबकुछ पाना है ?
ऊपर बैठा जो पालक है
न छोड़ वो देगा कि बालक है ।
कई जन्मों के प्रतिफल से
इंसान का जीवन मिलता है
सबसे हो हमारा प्रेम भाव
यही तो उनको दिखलाना है
इंसान हमे कहलाना है ।।

प्रभात रमण
मध्य विद्यालय किरकिचिया
फारबिसगंज अररिया

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