माॅं
मन मंदिर में तुझे बिठाकर,
मां चरणों में नबाऊं शीश।
तू हीं दुर्गा, मां शारदा,
उमा बन कर देना आशीष।।
तेरी चरणों में जन्नत है,
तेरी गोद में काबा-काशी।
तू ही सर्जक सकल जहां की,
चाहे गृहस्थ हों या सन्यासी।।
तेरी साया में पले बढ़े,
पाकर ममता की छांव।
उफनती लहरों से पार किया,
बनकर जीवन की नाव।।
तुमने हमको जन्म देकर,
बहुत बड़ा उपकार किया है।
नौ मास उदर में रखकर,
हमको जीवन उपहार दिया है।।
बचपन में तुम गुरु बनकर,
जीवन का पाठ पढ़ाती थी।
यदि कभी जो मचल जाता,
पलकों पर मुझे बैठाती थी।।
माॅं की ममता निश्छल होती,
गीता सी अमृत उसकी वाणी।
सदियों से भारत भूमि को जैसे,
पावन करता गंगा का पानी।।
माॅं का ऋणी है रोम रोम,
यह जानता सकल जहान है।
माॅं के खातिर सारा जीवन,
हर सुख-सुविधा कुर्बान है।।
आए थे जहाॅं पर राम-कृष्ण,
माॅं का सम्मान बढ़ाने को।
माताओं की त्याग, तपस्या से,
जग को अवगत कराने को।।
नहीं बन सकता मैं राम-कृष्ण,
पर श्रवन तो बन सकता हूॅं।
जीवन के दुर्गम राहों की,
कुछ कांटे तो चुन सकता हूॅं।।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि
पटना, बिहार