मानव की व्यथा-रीना कुमारी

Rina

Rina

मानव की व्यथा 

मेरी जिन्दगी एक खूली किताब,

पढ़ते है सब मेरे मन के भाव।
समझते है मुझे दूनियॉ में हीन,
कास! मेरी दूनियॉ होती रंगीन।
हॅसती हूँ हसांती हूँ मैं सबको,
गम में डूबी रखती हूँ मन को।
किन्तु उपर से न दिखती हूँ हारी,
जीवन की पतवार मेरी है भारी।
देती अशीष ले सब वलैया सारी।
सकल तो मेरे भगवान ने संवारी।

कुदरत ने ऐसा रचा मेरा रूप,
न बनी मै किसी की भी अनुप।

ललना ने जन्म लिया जहाँ,
नेकी लेने आशीष देने गयी वहाँ।
नाचूॅं-गाऊँ खुशी से, नेकी पाऊँ ,
खुशी से रहना मैं सिखलाऊँ।
मेरे आशीष जब पाये सब लोग,
सुख-संपदा धन करे वो भोग।
अच्छी दुवाएं देती मैं हरदम,
जीवन सबके चमके चम-चम।

पैसो की न कोई कमी है हमें,
पर दिल कहता है थमें-थमें।
ये कैसी परम्परा चली हो आई,
मैं अपनी गृहस्थी बसा न पाई?
माता-पिता मुझे रख नहीं पाये,
विधाता ने मेरे कैसे रूप सजाये।
जीवन को यूँ ही ऐसे संजोना है,
मानव तो मात्र एक खिलौना है।
कहना मेरा केवल इतना ही है,
ईश्वर के हाथों की रची रचना मैं।

मेरा भी करो सब सदा सम्मान,
कभी नहीं करना मेरा अपमान।
मन में कभी न रखो अभिमान,
बचाते रहो अपना स्वाभिमान।
मानव बनो तुम हमेशा ही महान,
ताकि पाते रहो सब हमेशा मान।
नहीं दिखाओ मानव कभी आन,
सभी तो हैं एक ईश्वर के संतान।
सबका बसा रहे सुन्दर जहान।

रीना कुमारी
पूर्णियॉ बिहार

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