मित्रता-जैनेन्द्र प्रसाद रवि

Jainendra

मित्रता

कृष्ण जैसा हो मित्र हमारा,
दीन सुदामा को दिल हारा।
प्रेम में पग कर जिसने अपने,
बाल सखा को दिया सहारा।
मित्र बना था कर्ण किसी का,
कर दिया जीवन नाम उसी का।
जीने का था एक ही मकसद,
मित्रता निभाया मरकर बेचारा।
किष्किंधा का था राजा “बाली”, 
वीरों में अतुलित बलशाली।
राम ने उसको धूल चटायी,
मित्र के लिए बाली को मारा।
अर्जुन ने जब धनुष को तज कर,
त्याग दिया रण मोह में पड़कर।
कृष्ण ने तब उद्देश्य बताया,
लड़ना भर केवल काम तुम्हारा।
खड़ा हुआ जब गांडीवधारी,
कौरव दल में थे भट-भारी।
कृष्ण जैसे मित्र के हाथों,
सौंप दिया तब जीवन प्यारा।
अपने दु:ख को कमतर जाने,
मित्र के सुख को ही सुख माने।
साया बनकर साथ निभाता,
सच्चा मित्र माने जग सारा।
छोड़कर अपनी लोभ, चतुराई,
मित्रता का मूल्य पहचानो भाई!
जीवन तेरा सफल हो जाये,
सच्चा मित्र जो मिले तुम्हारा।
सामने उसके दोष बताओ,
हमेशा उसका जोश बढ़ाओ।
सत्य, धर्म में निष्ठा पाये,
उसका जीवन हो उजियारा।
यदि मित्र में आये बुराई,
है दूर रहने में तेरी भलाई।
दुर्गुण तुममें भी आयेंगे,
बिना मौत जाओगे मारा।

जैनेन्द्र प्रसाद रवि
म. वि. बख्तियारपुर
पटना

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